उत्तराखंड में जंगल की आग के लिहाज से 2016 जैसे हालात उत्पन्न हो गए हैं। आंकड़े तो इसी तरफ इशारा कर रहे हैं। वर्ष 2016 में फायर सीजन के दौरान फरवरी से जून तक आग से 4400 हेक्टेयर वन क्षेत्र को नुकसान पहुंचा था, लेकिन इस मर्तबा सर्दियों से जंगल धधक रहे हैं और अब तक 1291 हेक्टेयर वन क्षेत्र प्रभावित हो चुका है। ऐसे में चिंता ये बढ़ गई है कि अगले तीन महीनों में जब पारा चरम पर रहेगा, तब क्या स्थिति होगी। जानकारों का कहना है कि इस सबको देखते हुए जंगल की आग पर नियंत्रण के लिए प्रभावी कदम उठाए जाने की दरकार है। हेलीकाप्टर की मदद लेनी होगी तो जनसामान्य को भी प्रशिक्षण देकर वनाग्नि प्रबंधन में शामिल करना होगा।
राज्य में इस मर्तबा अक्टूबर से शुरू हुआ जंगलों के सुलगने का क्रम अब पारे की उछाल के साथ ही तेज हो चला है। विशेषकर पर्वतीय क्षेत्र के जंगलों में आग अधिक धधक रही है। पूर्व में जब इस संबंध में जांच पड़ताल कराई गई तो बात सामने आई कि बारिश व बर्फबारी कम होने के कारण जंगलों में नमी कम हो गई है। नतीजतन वहां घास सूख चुकी है, जो अमूमन नवंबर-दिसंबर में जाकर सूखती थी। परिणामस्वरूप पहाड़ियों पर आग तेजी से फैल रही है। अब जिस तरह से आग धधक रही है, उसने वर्ष 2016 की याद ताजा कर दी है। तब चार महीनों के अंतराल में विकराल हुई जंगल की आग गांवों में घरों की देहरी तक पहुंच गई थी।आग के भयावह रूप लेने पर तब सेना और हेलीकाप्टरों की मदद लेनी पड़ी थी। यह पहला मौका था, जब हेलीकाप्टरों से आग पर काबू पाया गया। अब हालात, वर्ष 2016 जैसे ही नजर आने लगे हैं। धधकते जंगल इस तरफ इशारा कर रहे हैं।
हालांकि, सबकी नजरें इंद्रदेव पर टिकी हैं, मगर बारिश न होने से चिंता अधिक बढ़ गई है तो चुनौती भी कम नहीं है। ऐसे में आवश्यक है कि आग पर नियंत्रण के लिए नए सिरे से रणनीति अख्तियार कर इसे धरातल पर उतारा जाए। साथ ही हेलीकाप्टरों की मदद लेने में भी सरकार को कदम उठाने होंगे। इसके लिए केंद्र में गंभीरता से पक्ष रखने की दरकार है।
उत्तराखंड में धधक रहे जंगल की आग से 2016 जैसे हालात उत्पन्न हो गए हैं
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